भारत के एनएसजी सदस्यता प्रयास में चीन के रोड़ा अटकाने के बाद हम चीन की चालबाजी के प्रति अगर सजग न हों तो दुर्भाग्य है। सजगता की शुरूआत हम जनता के स्तर पर हो तो ज्यादा बेहतर है, क्योंकि चीन के उत्पादों को हम बढ़ावा देते हैं, यह सबसे बड़ा और कटु सत्य है। काफी समय पहले की बात है अमेरिका और जापान में आपसी व्यापार बिलकुल न के बराबर था। अमेरिका ने काफी जोर देकर जापान की सरकार से कहा कि जो आपके यहाँ संतरा होता है, हम उससे काफी सस्ता और दिखने में अच्छा संतरा आपको दे सकते हैं। जापान की सरकार ने अमेरीका के दबाव की वजह से ऑर्डर दे दिया। जब वो संतरा जापान के बाज़ारों में बिकने के लिए पहुंचा (बता दें कि जापानी संतरा खाने में कड़वा होता था और जो अमेरिका वाला संतरा था वो खाने में अच्छा भी था) तो जब वो अमेरीका वाला संतरा जापानी बाज़ारों में आया तो किसी ने नहीं खरीदा। इसलिए कि जापानी लोगों ने कहा कि चाहे मेरे देश का संतरा कड़वा और महंगा है, पर है तो हमारे देश का ही। हम इसे ही खरीदेंगे। तो वो बाकी का करोड़ों रूपये का संतरा सरकार के पास पड़ा सड़ गया। ये होती है राष्ट्रभक्ति। ये बस बताने के लिए था कि हमारा कर्तव्य क्या कहता है। हमारी केंद्र सरकार अपने स्तर से चीन को जवाब देगी, लेकिन कुछ दायित्व तो हमारा भी है।
यदि ये पूछा जाये कि आजाद भारत का ऐसा कौन सा क्षण है जिसपर आप सबसे ज्यादा गर्व कर सकते हैं। इसके कई उत्तर हो सकते हैं। अब अगर इससे बिलकुल उल्टा प्रश्न ये पूछें कि आजादी के बाद का सबसे शर्मनाक समय कौन सा है, तो इसके भी कई उत्तर हो सकते हैं। एक उत्तर पर ज्यादातर लोगों की सहमति होगी। वो होगा चीन से करारी हार। 1962 में चीन के हाथों ये बहुत ही शर्मनाक हार थी और आज भी उसका स्मरण कर सिर शर्म से झुकता है। कोई लोग तो उस दुर्घटना को याद भी नहीं करना चाहेंगे। इस हार के कारण क्या थे, इसको विश्लेषण करने के लिए एक समिति बनाई गई थी। उस रिपोर्ट पर चर्चा करके कुछ सबक सीखने की बात तो दूर, उस रिपोर्ट को आजतक सार्वजनिक ही नहीं किया गया। चीन की चालबाजी को समझने के लिए हमें इतिहास की सच्चाई को खंगालना होगा।
चीन 195० के बाद अपने नक्शों में कोरिया, इंडोचीन, मंगोलिया, बर्मा, मलेशिया, पूर्वी तुर्किस्तान, नेपाल, सिक्किम, भूटान व भारत जैसे 11 देशों को अपनी सीमा में दिखाता रहा है। हमें तभी संभलना चाहिए था, लेकिन हमने गौर नहीं किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया श्रीगुरु जी द्बारा भविष्यवाणी उसी समय की गई थी कि चीन भारत पर हमला कर सकता है। उसी समय चीनी प्रधानमंत्री चायू एन लाई भारत यात्रा के समय भारत हिदी-चीनी, भाई-भाई के नारे लगा रहे थे। श्रीगुरू जी की चेतावनी भी अनसुनी कर दी गई जो की उस समय का अख़बारों में खूब चर्चित हुई और फिर कहा गया कि धोखा हुआ है। इस धोखे की बात को आज फिर याद करना पड़ रहा है। यह इसलिए जरूरी हो गया है क्योंकि कुछ विशेषज्ञों का मानना है की चीन एनएसजी की सदस्यता को लकेर भारत का विरोध ही नहीं, बल्कि भारत के खिलाफ बड़ी साजिश की तैयारी कर रहा है। सवाल है कि क्या हम यह मान बैठ निश्चिंत हैं कि चीन व्यापारी बन गया है और हमारे बाजार को छोड़ेगा नहीं। जो लोग इस कहावत को अक्सर भूलते हैं कि इतिहास अपने को दोहराते हैं और उससे सीख नहीं लेते, वे पुन: लज्जा, शर्म सहने को अभिशप्त रहते हैं। हर बार पृथ्वीराज की तरह उदार होते-होते फिर स्वयं गिरफ्तार और आंखों से लाचार होने को अभिशप्त होना हमारी नियति नहीं होनी चाहिए। धोखा-धोखा चिल्लाने की बजाय कुछ और सोचना चाहिए और यह सरकार के स्तर पर नहीं, इस बार जनता के स्तर से इसकी पहल होनी चाहिए। क्या अच्छा नहीं कि भारत शिवाजी महाराज की तरह पूर्व तैयारी में हो। हम अगर चीनी उत्पादों का बहिष्कार करेंगे, तब हमारी सरकार भी सोचेगी और चीन की सरकार को दो-टूक सुनाएगी। हमें कई बार हैरानी होती है कि चीन बेशक हमारा पड़ोसी रहा है और हमेशा से एक ड्रैगन के स्वाभाव का देश रहा है। वह आदतन दूसरों को अपने अधीन करने वाला मुल्क रहा है। लेकिन हमारे इतिहास में एक भी घटना ये नहीं दर्शाती की चीन ने हमपर कभी कोई हमला किया हो। चंगेज़ खान नामक वहां का क्रूर हमलावर जहाँ-तहां अपनी तलवार घुमाता रहा, लेकिन भारत भूमि पर बिलकुल नहीं आया क्योंकि वो बौद्ध धर्म का मानाने वाला बताया जाता है। तो वह महात्मा बुद्ध की भूमि को कैसे छेड़ता। इतिहासकार तो उसका नाम भी चंगेस हान बताते हैं, यानी हान वंश का था। तो फिर क्या हुआ की चीन ने सन् 1962 में हमला बोल दिया और तब से लगातार हमारे प्रति शत्रुता दिखा रहा है। वास्तव में चीन और हमारे बीच तिब्बत था और 195० से पहले कभी भी हमारी और चीन की सीमा आपस में मिलती नहीं थी। तिब्बत की बफर स्टेट बीच में गायब होते ही स्थिति गड़बड़ा गयी। ये गलती इस लिए हुई की तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु चीन के इरादे नहीं भांप पाए थे और चीन को खुश करने के लिए एक से एक गलती करते गए जिसको आज तक भुगतना पड़ रहा है। पंडित नेहरु ’’हिदी चीनी भाई भाई’’ और ’’तीसरी दुनिया को अलग पहचान दिलाने’’ की हवाई नीतियों में मस्त रहे और चीन नई से नई चाले चलने में व्यस्त रहा। तिब्बत पर चीन से समझौता बहुत बड़ी भूल थी और इसके बाद वो लगातार हिमालयन फ्रंटीयर के इलाके में फैलता गया और भारत अपने पैर समेटता गया। सन 1949 के बाद से ही चीन ने अपना चक्रव्यूह रचना शुरू कर दिया था। चीन की चाल में फसकर नेहरु जी ने तिब्बत जो की एक स्वतंत्र देश था, उसको चीन का अभिन्न अंग मानने की गलती कर ली। वास्तव में 195० में तिब्बतियों ने भारत के साथ रहने और भारत का प्रोटेक्टोरट बनने की इच्छा जाहिर कि लेकिन विडम्बना देखिये कि नेहरु जी ने उदारता बरतते हुए उन्हें चीन का प्रोटेक्टोरट बनने की सलाह दी। इतना ही नहीं, 1951 में उनकी एक संधि भी करवाई जिसमें तिब्बत की आन्तरिक स्वायत्ता और संस्कृति और स्वशाशन आदि कायम रहेंगे, ऐसा कहा। और कहा कि केवल संधि कर चीन की संप्रभुता तिब्बत स्वीकार कर ले। तिब्बत ने भारत के भरोसे ही यह संधि की थी, लेकिन भरोसे में मारा गया। जैसे ही 1955 के बाद चीन ने तिब्बत में अपनी सेना भेजनी शुरू की तो पंडित नेहरु को अपनी गलती का एहसास होने लगा। 1959 आते-आते चीन ने तिब्बत पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया। यही वो दुर्भाग्यशाली साल था जब दलाई लामा को तिब्बत छोड़ भारत की शरण लेनी पड़ी। पंडित नेहरु ने चीनी विस्तारवाद का विरोध तो किया लेकिन यह विरोध केवल शब्दों तक ही सीमित था, जिसका खामियाजा आज भी हम भुगत रहे हैं। लेकिन हमें अब इसमें नहीं पड़ना कि किसकी गलती थी, किसकी नहीं। हमें बस मतलब इस बात से है कि अब चीन अगर हमारा दुश्मन है तो हम उस समझें। चीन की रणनीति शुरू से यही रही की शक्ति बन्दूक की नाली से निकलती है, न कि शांति के प्रवचनों से। पहले चीनी राष्ट्रपति चायू एन लाई ने कभी नहीं कहा की भारत के साथ चीन का कोई सीमा विवाद है। लेकिन 1959 में तिब्बत पर कब्ज़ा पूरा होने के बाद चीन ने चिल्लाना शुरू किया कि भारत ने हमारी एक लाख चार हज़ार वर्ग किलोमीटर जमीन दबा राखी है। अब इस रिपोर्ट को एक तरफ रख दें। आम आदमी भी महसूस करता है की आज हर तरफ हमारे बाज़ार चीनी माल से भरा पड़ा है। 2००1 तक चीन का भारत से व्यापार कोई खास नहीं था। भारत चीन को हर तरह से सुविधाएँ दे रहा है। और 2०1० तक भारत चीन व्यापार 62 अरब डालर का हो गया था और 2०11 ख़त्म होते तक ये आंकड़ा 84 अरब डालर तक पहुँचने लगा। इस व्यापार में दो हिस्से चीन के है और एक हिस्सा भारत के, लेकिन इस में भी एक पेच है। वो ये है कि हम जो बीस अरब डॉलर का माल चीन को देते हैं वो कच्चा माल है। इन बेश-कीमती खनिज पदार्थों में से भी साठ प्रतिशत तो कच्चा लोहा है। अनुमान है की यदि भारत इसी गति से लौह-अयस्क का निर्यात करेगा तो ये पचास साठ साल में बिलकुल ख़तम हो जायेगा। यह 55 वर्षों से अधिक समय तक हिन्दुस्तान पर राज करने वाली कांग्रेस नेतृत्व सरकार की ही देन है।
वैसे भी चीन के सामान नुकसानदेह है। चीनी दूध के उत्पाद दुनिया भर में प्रतिबन्ध का विषय बने हैं क्योंकि उनमे एक मेलामाइन नामक नुक्सानदेह औद्योगिक रसायन है। खिलोनों के रंगों में भी घातक रसायन बच्चों के लिए खतरनाक है। सस्ते जरूर होते हैं चीनी सामान लेकिन इतनी जल्दी खराब होते हैं कि पूछिए नहीं। इसलिए लम्बे वक्त में कुल मिलाकर चीनी उत्पाद महंगे ही पड़ते हैं।
Related
Recent Posts
- सुचेतना (NGO) की सदस्य सचिव अनुश्री मुखर्जी द्वारा टरपोलिन का वितरण
- ये वो भारत है जिसके जवाब पर विश्व सवाल नहीं उठा रहा है ।
- Inauguration of Digital Literacy Courses by Former President of India and Bharat Ratna Shri Pranab Mukherjee
- With Jagatguru Sankara Swami Shri Shri Vijendra Saraswati Maharaj at Kanchipuram
- प्रयाग में सदाचार और कोलकाता में भ्रष्टाचार का संगम